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एक प्रकाशक की पीड?
यह पोस्ट समदर्शी प्रकाशन के सभी लेखकों के लिए सब जरूर पढ़ें- समझें, जुडे़ें या फिर हमें छोड़ कर भी जा सकते हैं – जैसा उचित समझें …..
मैं एक बात लेखकों को कहता हूँ लेखक समदर्शी प्रकाशन को कितना अपना समझता है?
हर लेखक जब भी समदर्शी प्रकाशन के किसी प्रयास को देखता है तो उसे केवल और केवल अपनी ही पुस्तक की फिक्र चिंता और अस्तित्व क्यों नज़र आता है।
इस अविश्वास का कारण क्या है? एक लेखक इस भरोसे को अपने भीतर क्यों नहीं पालता कि यदि कहीं समदर्शी प्रकाशन है तो वहाँ मैं और मेरी किताब होगी ही।
कोई प्रकाशन, प्रकाशन कब बनता है? जब वो पुस्तकें प्रकाशित करता है? जिस प्रकाशक के पास जितने ज्यादा टाइटल होंगे उतना उसका अस्तित्व सुधरेगा। उतना वो समृद्ध होगा। आपकी किताब आपके लिए एक या संख्या में दो या दस हो सकती है किंतु समदर्शी प्रकाशन में आपकी किताब से समदर्शी प्रकाशन की प्रकाशित किताबों की संख्या बढ़ कर 562 हुई है। और आपकी एक किताब कम हुई कि समदर्शी प्रकाशन की यह संख्या प्रभावित हो कर 561 रह जाएगी। इस लिए हमारे लिए हर लेखक की पुस्तक का विशेष महत्व है।
हाँ लेखकों को कुछ बातें समझनी होंगी-
1. यदि प्रकाशक किसी जगह पर सुविधा के मद्दे नजर आपकी पुस्तक नहीं भी ले जा पा रहा है तो यह विश्वास रखें कि उसकी कोई वाजिब वजह होगी। कई बार कुछ जगहों पर व्यक्ति अपनी चुनिंदा चीजें ही दिखा पाता है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वो जो नहीं दिखा पा रहा है तो उसके लिए बाकी चीजें गौण हो गई है। जहाँ जैसी परिस्थिति होती है उसी तरह से काम किया जाता है। 562 किताबें डिस्पले करने के लिए कितनी अधिक जगह चाहिए। यह विचार भी लेखकों को करना और रखना चाहिए। साथ ही यह भी देखें कि इस तरह की एक्जिबेशन में स्टॉल के लिए स्थान के मुताबिक पैसे लगते हैं। ऐसे में प्रकाशन की आर्थिक मजबूरियों के चलते बहुत अधिक स्पेश तो लिया नहीं जा सकता। और अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए जाना भी जरूरी होता है। ऐसे में यदि किसी जगह पर फिजिकल प्रेजेंश किसी लेखक की नहीं भी हो रही है तो ऐसे में लेखकों को सब्र तो करना ही होगा। ऐसी जगहों पर जहाँ सब किताबें नहीं जाती हैं वहाँ भी प्रकाशन की कैटेलोग तो होती ही है। जो दिखाई जाती है इच्छित ग्राहक को।
कई व्यवहारिक पक्ष हैं इस बात के- लेखक यह अपेक्षा तो रखता है कि हर जगह उसकी किताबें प्रदर्शित करे प्रकाशक। किंतु प्रकाशक की मजबूरियाँ, उसकी व्यवस्थाओं में लेखक अपनी क्या कुछ जिम्मेदारी समझता है? क्या कभी किसी लेखक ने सोचा कि यदि प्रकाशक ने हमारे 20 प्रतियाँ भी अतिरिक्त छाप कर रखी होंगी तो उसने उसमें कुछ तो 50 या 100 रुपये लगाये होंगे? बैंग किये होंगे। क्योंकि हम लेखक से स्टॉक की प्रतियों के पैसे नहीं लेते हैं ? दूसरी बात उन किताबों को छपे यदि साल दाे साल पाँच साल हो गये हैं तो प्रकाशक उनकी धूल मिट्टी रख रखाव भी रख्ता है। मेलों ठेलों में लाद कर किराया भर कर ढोता भी है। प्रतीक्षा भी करता है। और लेखक की इस आशंका का शिकार भी बराबर रहता है कि प्रकाशक उसकी किताब मेले में नहीं ले गया, या बेच ली होंगी बताता नहीं है। आज तक एक पैसा रॉयल्टी नहीं दी? आदि आदि। हमें कैसे पता चलेगा कि हमारी कितनी किताबें बिकी? ये सब प्रश्न एक लेखक के दिमाग में रहते हैं।
मैं कहता हूँ स्वयं प्रकाशन के तहत यानि खुद पैसे दे कर छपाई गई पुस्तकों में लेखक ने स्वयं दोहरी भूमिका अंगिकार की है स्वयं प्रकाशन का अर्थ ही यह है कि पुस्तक के प्रकाशक के रूप में भी लेखक की बराबर की भूमिका है। ऐसे में एक लेखक को प्रकाशक के तौर भी सोच विचार करना चाहिए। और प्रकाशक से इस सम्बंध में अपनी प्रकाशक की भूमिका के विषय में पूछना चाहिए- लेखक को प्रकाशक के तौर पर स्वयं योजना बद्ध तरीके से काम करना चाहिए। कई ऐसे लेखक हैं जिन्होंने स्वयं प्रकाशन के तहत अपनी पुस्तकें छपवाई हैं और अपनी पुस्तक की स्वयं ही 500 – 500 किताबें बेच ली हैं? वो लेखक खुद मुझे कहते हैं कि मेरा पैसा तो निकल गया है। अर्थात उन्होंने लागत मूल्य पर हमसे पुस्तक ली और अपनी पहचान के बल पर अपनी प्रतिष्ठा के बल पर और अपनी लेखकीय पहचान के बल पर पुस्तक की 500 प्रतियाँ बेच ली। सोचिए लेखक को हम 50 प्रतिशत मूल्य पर पुस्तकें देते हैं यानि 100 कि किताब 50 रुपये में और यदि लेखक उसे 100 रुपये के हिसाब से बेच ले तो लेखक को सीधे 100 प्रतिशत रॉयल्टी मिले और सीधे मिले। जो लेखक नये लेखक स्वयं के पैसे से पुस्तक प्रकाशित करते हैं करवाते हैं उन्हें ये करना ही चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि प्रतिष्ठित लेखक हो तो प्रकाशक की स्टॉल पर आ कर नाम से किताब मांगेगा। अब नये लेखक हैं जिनके नाम से कोई परिचित नहीं, तो बेशक हम दुकान पर 500 किताबें भी लगा दें फिर भी किताबों की खरीद की संभावना 1-2 प्रतिशत ही होती है।
सच मानिए हम बहुत पारर्दिशता से काम करना चाहते हैं – लेखक से कभी किसी अन्य मद में पैसे नहीं मांगे- कि पुस्तक मेले में डिस्पले के नाम पर, पुस्तक विमोचन के नाम पर या अन्य प्रचार प्रसार के नाम पर। किंतु जब इस तरह के प्रश्न आते हैं- तो जो गतिविधि हम करना भी चाहते हैं उसमें भी फिर पीछे हटना पड़ता है –
जैसे उदाहरण के तौर पर एक बात समझिए – हमारे पास 562 टाइटल हैं – जो कि लगभग 450 लेखकों की पुस्तकें हैं-
अब हमारे मन में विचार आया चलो सोशल मीडिया पर हम कुछ प्रचार पुस्तक समीक्षा के रूप में शुरू करते हैं – तो सोचिए क्या ये विचार अच्छा है या बुरा? आप मानते ही होंगे कि विचार अच्छा है। लेकिन अच्छे विचार के पीछे एक और बात है और वो ये है कि बहुत श्रमसाध्य है। समय लगता है, मेहनत लगती है और यदि स्टॉफ की दृष्टि से देखा जाए तो इस काम में पैसे भी लगते हैं- अब हम ये सब वहन करके पहला कदम उठाते हैं – इस प्रयास को प्रसारित करते हैं, सोशल मीडिया पर डालते हैं – यू ट्यूब के लिए वीडियो बना कर डालते हैं तो – हमारे अपने ही लेखकों के कैसे कमैंट आते हैं- ये देखिए –
—– अरे सर मेरी पुस्तक फलां सन में आपके यहाँ से आई थी उसकी समीक्षा नहीं की आपने
— अरे सर मेरी पुस्तक की समीक्षा कब आएगी ?
— अरे सर मेरी पुस्तक के बारे में तो आपने कुछ बोला ही नहीं ?
इसी तरह से यदि हम कहीं किताबों की प्रदर्शनी लगाते हैं और उसका प्रचार करते हैं तो लेखक को यह तसल्ली नहीं होती कि यदि कहीं समदर्शी प्रकाशन कहीं डिस्पले में है तो वो स्वत: ही हैं। बस उनकी आँखें अपनी पुस्तक खोजती हैं।
यदि हमने समीक्षा कर्म शुरू किया तो किसी एक बुक से ही करेंगे न, धैर्य रखें आपका भी क्रम अवश्य आएगा किंतु इस धैर्य का प्रदर्शन कुछ लेखक बिल्कुल नहीं करते।
समदर्शी प्रकाशन से लेखक का जुड़ाव ही नहीं होता। लेखक को लगता है हमने पैसे दे कर पुस्तक छपवाई है। प्रकाशक के साथ वो अपने पारिवारिक या सखा सम्बंधी के सम्बंध को अपने भीतर पैदा ही नहीं कर पाते। और पैसे कितने पैसे भाई- 6000 हजार 7000 में सौ पेज सवा सौ पेज की पुस्तकें – विचार करें तो 60 से 70 रुपये प्रति पेज भी नहीं पड़ता। मार्केट में एक लैटर टाइप या सैटिंग करवाने के लिए ग्राफिक डिजाईनर के पास जाएंगे तो वो कम से कम 100 रुपये ले लेगा।
किंतु प्रकाशक लेखक का ऋणि हो गया। आशंका, शंका पाल कर बैठते हैं दोष देते नहीं थकते, कई लेखक मेरे पास ही आ कर अपने पूर्व प्रकाशक की बुराई करते हैं पहले किताब छपवाई थी एक्सपीरियंश अच्छा नहीं रहा ? मैं पूछता हूँ क्या अच्छा नहीं रहा ? अरे सर दो साल से प्रकाशक ने कोई सूचना नहीं दी कितनी किताबें बिकी? तो मैं कहता हूँ आपकी किताबें क्यों बिकेंगी ? क्या आपको पाठकों की चिट्ठी आती है, कि मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी हैं क्या आपने कभी अपनी पुस्तकों का प्रचार किया? तो ऐसे में आप यह विश्वास क्यों नहीं कर सकते कि प्रकाशक ने एक भी किताब बेची ही नहीं होगी। किताबें बिकती ही नहीं है।
एक और बात गाजियाबाद साहित्य महोत्सव में प्रकाशक के तौर पर हम शामिल हुए – दो दिन दो लोग लगे। स्टॉल के लिए भी पेमेंट करना था। दो दिन वहाँ लगे भी किराया भाड़ा भी लगा। वहाँ इस महोत्सव में आने वाले बड़े नामचीन लेखक आए थे जिनकी संख्या दोनों दिनों 200 से 250 थी। और आप यकीन मानिए एक भी माननीय लेखक पुस्तक स्टॉल पर आ कर 10 मिनट समय नहीं दिया। किसी बड़े महान लेखक ने यह जेहमत उठाना जरूरी नहीं समझा कि एक नया प्रकाशक उनसे अपरिचित प्रकाशक यहाँ उपलब्ध है उसके पास 500 किताबें और 400 नये लेखक हैं वो उनको थोड़ा समय तो दें- उनकी किताबों के एक एक वाक्य तो अवश्य पढ़ें ताकि उन्हें पता चल सके अन्यत्र क्या कुछ लिखा जा रहा है क्या छप रहा है। नहीं किया उन लेखकों ने ये काम – और स्टैज पर भाषण दे रहे थे किताबों के पाठक घट रहे हैं, किताबें कोई नहीं पढ़ता, कैसे साहित्य लिखा जाए, साहित्य के सरोकार आदि आदि विषयों पर दो दिन घंटों घंटों की बहसें हुई….
सर जी ये विडंबना है।
मैं साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में साहित्य की सेवा के लिए हूँ… किंतु ये बहुत नासुकराना काम है। इसमें हम जिनके लिए किताबें ढोते हैं धूप में वो हमें चोर समझते हैं वो समझते हैं हम उनकी रोयल्टी खा गए। जिनकी किताबों की धूल में झाडते हैं वो समझते हैं हमने 7000 रुपये में किताब छाप कर उनके घरों में डाका डाल लिया।
लोग अपने घर झाडू लगाने वाले को पैसे देते हैं किंतु जो प्रकाशक उनकी किताबों की झाड फूंक करता है, वो हमें बदले में शुकि्रया तक नहीं कहते, अपने को चेतन भगत समझते हैं – हकीकत से अनजान। हकीकत से दूर। और हाँ एक दर्द और कहे देता हूँ जब इतना कहा है – कुछ लेखक तो इतने एम्बिसियस भी निकले कि जब किताब साहित्य अकादमी की लिस्ट में आ गई तो हमसे किताब को अप्रकाशित करवा कर निकल लिए इस उम्मीद में कहीं दूसरे प्रकाशक से लाखों कमाएंगे- ईश्वर करें वो जल्दी धनवान बनें। हमें बस किताबों की डूबती विरासत को बचाए रखना है। किताबों के लिए ही जीवन भर काम करना है। जो लेखक हम पर भरोसा न करता हो बेशक अपनी पुस्तक अप्रकाशित करवा ले। एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हम जो पैसे ले कर छापने वाले प्रकाशकों के खाके में आते हैं – किंतु हम केवल पुस्तक की बनवाई और लेखकीय प्रतियों की छपवाई का खर्च ही लेखक से लेते हैं। उसके बाद स्टॉक के लिए हम कोई पैसा नहीं लेते। किताबों की ओनलाइन उपलब्धता हो या मेले ठेलों में किताबों की उपलब्धता हो इसके लिए किसी लेखक से कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लेते। वर्ना बड़ी बड़ी कम्पिनयाँ नो…प्रे… टाइप की कम्पनियाँ हर मेले में लेखकों से उनकी पुस्तकें डिस्पले के लिए भी अतिरिक्त चार्ज करते हैं।
अंत में बस इतना ही क्षमा सहित कि लेखक बंधु समदर्शी प्रकाशन ने जिस दिन आपकी किताब छापी उसी दिन से वो किताब समदर्शी प्रकाशन की है। अत: आप भी समदर्शी प्रकाशन को जिस दिन अपना समझ लेंगे उस दिन आप समदर्शी प्रकाशन की स्टॉल के फोटो को ही अपनी किताब का फोटो समझेंगे। और उसे ही शेयर करते हुए कहेंगे समदर्शी प्रकाशन की स्टॉल पर मेरी पुस्तक उपलब्ध है। किंतु यह विश्वास तब ही आएगा जब निर्मल भाव होगा, साम्यता का भाव होगा, अपने पन का भाव होगा। अपने अपने का भाव नहीं होगा।
जो भी शुरूआत अच्छी करता हूँ लेखकों को प्रोत्साहन करना चाहिए किंतु टांग खिंचाई करनी शुरू कर देते हैं और क्योंकि मैं इस ऐवज में किसी से कुछ नहीं लेता इस लिए ऐसे प्रश्न मुझे विचलित करते हैं और मैं ऐसी शुरूआत को रोक देता हूँ –
जो पहल मैंने अभी तक की और रोक दी उनको देखें और साफ लिखता हूँ कि मेरे अपने लेखकों के तीखे कमेंट के कारण मैं ये काम रोक कर खड़ा हो गया –
– हमने स्कूल कॉलेजों के बाहर बुक स्टॉल लगाने का अभियान शुरू किया था
– हमने फेस बुक पर लेखकों से लाइव वार्ता का काम शुरू किया था
– हमने यू ट्यूब पर किताबों के प्रामो डालने का काम शुरू किया था
– मैंने पुस्तक समीक्षा की वीडियो बनाने का कार्य शूरू किया था
– हमने एक पत्रिका का कार्य शुरू किया था जिसमें हम पुस्तकों की समीक्षा छाप रहे थे
– हमने पुस्तक मेलो में जाना शुरू किया था और बींच में बंद कर दिया
और अनेक ऐसे विचार जो दिमाग में आए और वहीं बंद कर दिए
हाँ एक बात यह भी जोड़ना जरूरी है। 400 में से अधिकांश ऐसे लेखक भी हैं जिन्होंने आज तक ऐसा कुछ नहीं कहा न लिखा। और अनेक पुस्तकें हमें छपने के लिए भेज रहे हैं …. ऐसे लेखक मैं मानता हूँ कि समदर्शी प्रकाशन को अपना प्रकाशन मानते हैं और उन्हीं के विश्वास और संबल से हम इतनी दूर की यात्रा कर भी पाए हैं अत: उन लेखकों का हार्दिक आभार करना भी मेरा दायित्व है। बस इस लिखने के पीछे यही उद्देश्य है कि प्रिय लेखकों आप एक प्रकाशक के श्रम का महत्त्व समझें … ये साझा यात्रा है …
प्रश्न पुस्तकों से कमाने का नहीं है प्रश्न है पुस्तक संस्कृति को बचाने का।
सोचिए एक लेखक जिसने पहली किताब लिखी है उसे क्या बड़े प्रकाशक छापेंगे? छाप रहे हैं ? यदि नहीं तो स्वयं प्रकाशन के नाम पर पुस्तक की लागत भी का आर्थिक सहयोग ले कर किताब प्रकाशन तक की यात्रा में सहभागी बनने का यह कर्म जरूरी है। क्योंकि यदि यह न होता तो हर वर्ष कई लेखक जो हमारे यहाँ से पुस्तक छपवा कर अकादमियों से अवार्ड पाए हैं क्या वो संभव होता? यह भी विचार करने योग्य है।
भावातिरके में कुछ अधिक कह गया हूँ लिख गया हूँ तो क्षमा चाहता हूँ
अत: प्रिय लेखक मित्रों मत दो पैसा किंतु विश्वास तो दो
मत दो संबल किंतु आश तो दो
मत जुड़ो हमसे एक प्रकाशक की तरह
किंतु हम आपके लिए कुछ कर रहे हैं ये अहसास तो दो
– योगेश समदर्शी
प्रकाशक
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